क्या होती थी कालापानी की सजा ???
जब अंग्रेजी हुकूमत चल रही थी उस दौर में काला पानी की सजा देते आपने कई बार सुना होगा , बहुत ही भयावह सजा थी वो. ऐसा क्या था इस सजा में जो आज भी लोग इसकी चर्चा करते है. और क्यों इसे क्रूरतम श्रेणी में गिना जाता है.
सेल्युलर जेल यह एक ऐसा कला अध्याय है भारतीय इतिहास में की भारत शायद ही उसे भूल पाएगा. भारत जब पूरी तरह गुलामी के जंजीरों में जकड़ा हुआ था स्वतंत्रता सेनानीयों पर ब्रिटिश सरकार कहर ध रही थी. हजारो सेनानियों को उस समय फांसी पर लटका दिया था. लोगों को तोफों के मुंह पर बांध कर उदा दिया। कई योंको तो तिल तिल कर मारा जाता था, इसके लिए अंग्रेजों के पास सेल्युलर जेल का अस्त्र था. इस जेल को सेल्युलर इस लिए नाम दिया गया था क्योकि यहाँ एक कैदी को दूसरे कैदी से बिलकुल अलग रख जाता था. जेल में हर कैदी को अलग अलग सेल होती थी। यहाँ का अकेलापन कैदी के लिए बहुत भयावह होता था।
यहाँ कितने भारतीयों को सजा दी गई और कितनो को फांसी दी गई इसका कोई रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. लेकिन आज भी जीवित स्वतंत्रता सेनानियों के जेहन में काला पानी ये शब्द भयावह जगह के रूप में बसा है. यह शब्द भारत में सबसे बड़ी और बुरी सजा के लिए मुहावरा बना हुआ है.
अंडमान के पोर्ट ब्लेयर में स्थित इस जेल की चार दिवारी इतनी छोटी थी की आसानी से कोई भी पार कर सकता है। लेकिन यह स्थान चारो और से गहरे पानी घिरा हुआ है। जहाँ से सेकड़ो किमी दूर पानी के आलावा दस्ता कुछ भी नजर नहीं आता है। यहाँ का अंग्रेज सुप्रिडेंट कैदियों से अक्सर कहता था। जेल की दिवार इरादतन छोटी बनाई गई है। लेकिन यहाँ ऐसी कोई जगह नहीं है। जहाँ से आप जा सके।
सबसे पहले २०० विद्रोहियों को यहाँ जेलर डेविड बेरी और जेलर जेम्स पैटिसन वॉकर की सुरक्षा में यहाँ लया गया। उसके बाद ७३३ विद्रोहियों को कराची से लाया गया। भारत और बर्मा से भी यहाँ सेनानियों को सजा के बतौर लाया गया था। सुदूर द्वीप होने की वजह से यह विद्रोहियों को सजा देने के लिए अनुकूल जगह समझी जाती थी. उन्हें सिर्फ समाज से अलग करने के लिए यहां नहीं लाया जाता था। बल्कि उनसे जेल का निर्माण , भवन निर्माण , बंदरगाह निर्माण आदि के काम में लगाया जाता था। यहाँ आनेवाले कैदी ब्रिटिश शासकों के घरों का निर्माण भी करते थे। १९ वि शताब्दी में जब स्वतंत्रता संग्राम ने जोर पकड़ा तो यहाँ कैदियों की संख्या भी बढती गई।
सेलुलर जेल का निर्माण १८९६ में प्रारंभ हुआ और १९०६ में ये बनकर तैयार हुई। इसका मुख्य भवन लाल इटोंसे बना है। ये ईंटे बर्मा से यहाँ लाई गई जो आज म्यानमार के नाम से जाना जाता है। इस भवन की ७ शाखाएं है और बीचो बिच एक टॉवर है। इस टॉवर से ही सभी कैदियों पर नजर रखी जाती थी. ऊपर से देखने पर ये एक सायकल की पहिए के तरह दिखाई देता है। टॉवर के ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा था. जो किसी भी तरह का संभावित खतरा होने पर बजाया जाता था.
प्रतेक शाखा तिन मंज़िला बनी थी इनमे कोई शयन कक्ष नहीं था. और कुल ६९८ कोठरियां बनी थी. प्रतेक कोठरी १५*८ फिट की थी। जिसमे तिन मीटर की ऊंचाई पर रोशनदान थे। एक कोठरी का कैदी दूसरे कोठरी के कैदी से कोई संपर्क नहीं रख सकता था। जेल में बंद स्वतंत्रता सेनानियोंको को बेड़ियों से बाँधा जाता था।
कला पानी में अधिकांश कैदी स्वतंत्रता सेनानी थे। इनमे प्रमुख रूप से डॉ दीवन सिंह , मौलाना फजल-ए - हक खैराबादी , योगेन्द्र शुक्ला, बटुकेश्वर दत्त , मौलाना अहमदउल्ला , मौलवी अब्दुल रहीम सदिकपुरी , बाबूराव सावरकर , विनायक दामोदर सावरकर , भाई परमानंद, शदन चन्द्र चटर्जी , सोहन सिंह , वमन राव जोशी, नंद गोपाल आदि थे.
एक बार यहाँ २३८ कैदियों ने भागने की कोशिश की थी। लेकिन उन्हें पकड़ लिया गया। एक कैदी ने आत्महत्या की तब जेल के अधीक्षक वॉकर ने ८७ लोगों को फांसी पर लटकाने का आदेश दिया था।
यहाँ १९३० में. भगत सिंह के सहयोगी महावीर सिंह ने अत्याचार के खिलाफ भूक हड़ताल की थी। जेल अधिकारीयों ने उन्हें जबरन दूध पिलाया। दूध जैसे ही उनके पेट के अंदर गया उनकी मौत हो गई। इसके बाद उनके शव को पत्थर बांधकर समुद्र में फेंक दिया गया था. अंग्रेजो द्वारा अमानवीय अत्त्याचार करने के कारन १९३० में यहाँ कैदियों ने भूक हड़ताल कर दी थी, तब महात्मा गांधी और रविंद्रनाथ टैगोर ने इसमें हस्तक्षेप किया। १९३७ -३८ में यहाँ से कैदियों को स्वदेश भेज दिया गया था।
जापानी शासकों यहाँ १९४२ में कब्ज़ा किया, और अंग्रेजों को यहाँ से दौरान नेताजी मार भगाया। उस समय अंग्रेज कैदियों को सेल्युलर जेल में बंद कर दिया गया था। उस दौरान नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भी वहां का दौरा किया था। ७ में से दो शाखाओं को जापानियों ने नष्ठ कर दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद १९४५ में फिर से अंग्रेजो ने यहाँ कब्ज़ा जमाया।
भारत को आजादी मिलने बाद इसकी दो और शाखाओं की ध्वस्त कर दिया गया। शेष बची ३ शाखाएं और मुक्य टॉवर को १९६९ में राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया गया। १९६३ में यहाँ गोविन्द वल्लभ पंत असप्ताल खोला गया। वर्तमान में यहाँ ५०० बिस्तरों वाला असप्ताल है और ४० डॉक्टर यहाँ के निवासियों की सेवा कर रहे है। १० मार्च २००६ को सेल्युलर जेल का शताब्दी वर्ष समारोह मनाया गया। भारत सरकार द्वारा इस जेल में सजा काट चुके कैदियों को बधाई दी गई.
१९९६ में हुई कला पानी मल्यालम फिल्म की शूटिंग यहीं पर हुई थी।